शंभूनाथ शुक्ल / जो वैश्विक हालात बनते जा रहे हैं, उसमें निजीकरण अनिवार्य है, वह होकर रहेगा। और अगर मोदी सरकार न आई होती तो भी प्राईवेटाईजेशन अवश्यम्भावी था। यही नहीं कृषि नीतियाँ भी आज जैसी ही होतीं। क्योंकि इसका रास्ता चिदम्बरम और मनमोहन की जोड़ी स्मूथ कर गई थी। इसलिए इस पर फाँय-फाँय करना एक प्रलाप है। कोविड के भी यही हालात रहते। इसलिए इसमें मोदी सरकार कठघरे में नहीं खड़ी होती। मोदी सरकार ने प्राईवेट क्षेत्र में रोज़गार के नए अवसर दिए हैं। आज की तारीख़ में सबसे अधिक रोज़गार लॉजिस्टिक्स में हैं। और देश की आधी आबादी इसमें लगी है।
कोविड ने अर्बन क्लैप के ज़रिए नए रोज़गार दिए हैं। हाँ महँगाई बढ़ी है। मज़दूरी महँगी हुई है, इससे मिडिल क्लास का एलीट में आने का सपना ज़रूर चूर-चूर हुआ है। मगर नौकरियों के नए अवसर भी तो मिले हैं। आज जो घर में दूध से लेकर दाल और सब्ज़ी की सप्लाई हो रही है, यह सब लॉजिस्टिक के बूते ही। इसका लाभ अल्पसंख्यकों को सबसे अधिक हुआ है। अर्बन क्लैप के ज़रिए जो नाई, कपड़े धोने वाला, दूध-दही या सब्ज़ी लेकर आने वाला अथवा एसी की सफ़ाई के लिए जो लोग आते हैं, वे सब मुस्लिम होते हैं।
अब जोमैटो चाहे भी तो मुस्लिम डिलीवरी बॉय को हटा नहीं सकती। पंडित जी को खाना हो तो खाएँ चाहे भूखे बैठें। बस आदमी को सोचना है कि रोज़गार के मौक़े हैं कहाँ! यह भी सच है कि आने वाले दिनों में सिर्फ़ पुलिस और सेना को छोड़ कर सब कुछ निजी हाथों में होगा। यह सरकार रहे अथवा जाए किंतु जो चक्र चल दिया है अब वह नहीं रुकेगा। लेकिन मोदी सरकार ने जो काम पिछली सरकार से अलग किया वह बस इतना ही कि विरोध की आवाज़ दबा दी है। पारदर्शिता पर अंकुश लगा दिया है। चाहे जितना चीखो, सरकार अपने अगले कदम का पूर्वाभास नहीं देती।
- लेखक अमर उजाला के संपादक रह चुके हैं
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