ध्रुव गुप्त / होली के उत्सव की शुरुआत के संबंध में पुराणों ने कई कथाएं गढ़ी हैं। उनमें सबसे प्रचलित कथा हिरण्यकश्यप, प्रहलाद और होलिका की है। होली को राधा-कृष्ण के प्रेम और कृष्ण द्वारा राक्षसी पूतना के वध से भी जोड़ा गया है। एक अन्य कथा के अनुसार इस उत्सव की शुरुआत राजा रघु के समय बच्चों को डराने वाली ढोंढा नाम की राक्षसी के अंत से हुआ था। ये तमाम कथाएं किंवदंतियां ही लगती हैं। होली की उत्पत्ति का सबसे तार्किक विवरण वेदों में मिलता है। वेदों में इस दिन को नवान्नेष्टि यज्ञ कहा गया है। यह वह समय होता है जब खेतों से पका हुआ अनाज घर लाया जाता था। पवित्र अग्नि में जौ, गेहूं की बालियां और चने को भूनकर उन्हें प्रसाद के रूप में बांटा जाता था। एक तरह से यह दिन आहार के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन का उत्सव है।
होली के आरंभ की एक और तार्किक व्याख्या अथर्ववेद में मौजूद है। इसके अनुसार किसी संवत्सर अर्थात नव वर्ष का आरंभ अग्नि से होता है। साल के अंत में फागुन आते-आते यह अग्नि मंद पड़ जाती है। इसीलिए नए साल के आरंभ के पहले उसे फिर से प्रज्वलित करना होता है। यह अग्नि फागुन मास की पूर्णिमा को जलाई जाती है जिसे संवत दहन कहते हैं। उसके बाद चैत्र से गर्मी की शुरुआत होती है। आज भी होलिका दहन के मौके पर लोग संवत ही जलाते हैं। इस अग्नि उत्सव के अगले दिन रंगों से खेलने की परंपरा भी प्राचीन काल में ही शुरू हो गई थी।
आप सबको होली की शुभकामनाएं !
- लेखक एक पूर्व आई पी एस हैं
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